सोमवार, 26 अगस्त 2013

भूख नहीं जानती ग्लोबल वार्मिंग

भूख नहीं जानती ग्लोबल वार्मिंग




हम सब जानते हैं कि जीवाश्म ईंधन के बढ़ते उपयोग, कटते जंगल, शहरीकरण आदि के कारण वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इन गैसों में प्रमुखता से कार्बन डाइऑक्साइड गैस को अधिक दोषी माना जा रहा है क्योंकि ग्रीन हाउस गैसों (जी0एच0जी0) में सबसे अधिक मात्रा इसी की है।

उसे आंख खोले हुए कुछ ही समय हुआ था। अपनी पिछली पीढ़ियों की तरह वह भी जानता था कि मां खाना लेकर आएगी। बस भोर हुई ही थी, उसे पता था कि मां आने ही वाली है उसके लिए खाना लेकर, जिसे खाकर उसके शरीर उसके शरीर में ऊर्जा का संचार होगा और वह भी भरेगा इस नीले आकाश में उड़ान अपने सपनों की, अपनी उम्मीदों की, अपने नए बनते जीवन की। पर समय बीत रहा था, उसे घबराहट होने लगी, उसे लगा कि मां कहीं उसे भूल तो नहीं गई, तभी मां की आवाज सुनाई दी, वह चहक उठा। मां बदहवास सी उसे देख रही थी। आज उसे खाना नहीं मिला था, नन्हे बच्चे को वह देखने आई थी। अभी जिन्दा था, उसे देखकर वह फिर चली गई खाना ढूंढने। बच्चा राह देखता रहा, भूख इतनी बढ़ी कि वह उसे ही खा गई, भूख ने छीन लिए बच्चे की उड़ान के सपने, मां ढूंढती रही खाना अपने बच्चे के लिए..............

मां को खाना नहीं मिलना था। क्योंकि इस ब्लैक टर्न चिड़िया के अंडे में से बच्चा निकलने के समय जो कैटरपिलर साथ में ही बाहर आते थे, उस साल गर्मी जल्द आने से एक महीना पहले ही तितली बन चुके थे। और सिर्फ एक महीने के फर्क ने इस ब्लैक टर्न प्रजाति चिड़िया के बच्चे का खाना, कैटरपिलर, छीन लिया था। अब गर्मी पहले आने से कैटरपिलर समय से पहले तितली बनकर आकाश में उड़ान भरते हैं, लेकिन ब्लैक टर्न अब उड़ान भरती कम ही नजर आती है, क्योंकि वह विलुप्त होने के कगार पर है। सिर्फ इतने से जलवायु परिवर्तन ने एक सुंदर पक्षी को धरती से छीन लिया, पता नहीं यह ग्लोबल वार्मिंग यानी गर्माती धरती कितनों के मुंह का निवाला छीनेगी।

ब्लैक टर्न चिड़िया के लुप्तप्राय होने का किस्सा हॉलैंड का है। लेकिन विश्व के लगभग सभी भागों से इस प्रकार के मामले सामने आ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण प्रजातियों का विलुप्त होना, या आमों में जल्द बौर आना, फसल की पैदावार में गिरावट होना, सागर में मछलियो का किसी अन्य क्षेत्र की ओर पलायन करना, ये सभी गर्माती धरती के ही परिणाम हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से धरती का औसत तापमान बढ़ रहा है, जिस कारण विभिन्न प्रजातियों के जीवों, फसलों तथा पक्षियों आदि के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। और मानव भी जलवायु परिवर्तन का मार से अछूता नहीं रहेगा।

ग्लोबल वार्मिंग संक्षेप में

हम सब जानते हैं कि जीवाश्म ईंधन के बढ़ते उपयोग, कटते जंगल, शहरीकरण आदि के कारण वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इन गैसों में प्रमुखता से कार्बन डाइऑक्साइड गैस को अधिक दोषी माना जा रहा है, क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों (जी0एच0जी0) में सबसे अधिक मात्रा इसी की है।

धरती का औसत तापमान बढ़ने के कई दुष्प्रभाव सामने आने शुरू हो गए हैं। सागर का तापमान बढ़ा रहा है, बढती अम्लता के कारण शंख या कवच वाले जीवों की संख्या घट रही है लेकिन नेशनक इंस्टिट्यूट ऑफ ओशिनोग्राफी के वैज्ञानिकों का मानना है कि सबसे बड़ी समस्या समुद्र के पानी की बढ़ती अम्लता की है। बढ़ती अम्लता के कारण शंख या कवच वाले जीवों की संख्या घट रही है, साथ ही प्रवाल-भित्तियां की बिगड़ती हालत से हम वाकिफ है।

महासागरीय संचरण से पूरे विश्व की जलवायु निर्धारित होती है। महासागर कार्बन का सबसे बड़ा भंडारगृह भी है, क्योंकि ये इस काफी मात्रा में सोखते हैं। जब समुद्र का तापमान बढ़ेगा, तो ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, ग्लेशियर पिघलेंगे और समुद्र का स्तर बढ़ेगा। समुद्र का स्तर बढ़ने से तटीय क्षेत्रों का दायरा सिमटता जायेगा और किनारों पर रहने वाले लोग अन्दर की ओर पलायन करेंगे। समुद्री पानी से काफी बड़े इलाके की उपजाऊ भूमि प्रभावित होगी, जिससे पहले से मौजूद खाद्यान्न संकट में और इजाफा होगा। जलवायु परिवर्तन के रूप में गर्मी के मौसम का जल्द आना, और लंबे समय तक रहना हमारे सामने है।

ग्लोबल वार्मिंगं का फसलों पर प्रभाव

पूरी दुनियां में सभी फसलें, वृक्ष, फल, फूल आदि उस क्षेत्र की जलवायु व भूमि की परिस्थितियों के अनुसार ही पनपे हैं। इसलिए हर मौसम में अलग-अलग फल, सब्जियों, अनाजों आदि का स्वाद मिलता है। अगर जलवायु परिवर्तन ऐसे ही जारी रहा तो फसलों की पैदावार में भी बड़ी गिरावट आना तय है।

अगर भारत में औसत तापमान में वृद्धि हुई तो भारत की खाद्य-सुरक्षा और जल संसाधनों पर सबसे बुरा असर पड़ेगा। गर्माती धरती के कारण वर्षा चक्र में भी परिवर्तन आ रहा है, जिससे फसल चक्र भी प्रभावित हो रहा है। विश्व में अधिकतर खेतीबाड़ी मौसम पर आधारित है। भारत में करीब 60 फीसदी खेती वर्षा पर निर्भर है। पिछले साल मानसून में कमी से करीब 20 फीसदी अन्न-उत्पादन घट गया है। हम इन दिनों दालों जैसे जरूरी खाद्यान्न की जबरदस्त महंगाई का सामना कर रहे हैं। इसका एक कारण यह भी रहा है कि सन् 2009 में व्यापक सूखा और भयंकर बाढ़ जगह-जगह फसलों को सुखाती और डुबोती रही। दलहन, तिलहन, चीनी और प्याज तथा आलू जैसी फसलों की जितनी मांग है, उतनी पूर्ति नहीं हो पा रही। कृषि-विपणन की किसान केंद्रित व्यवस्था न होने के कारण खाद्य पदार्थों की महंगाई और ग्रामीण दरिद्रता को हवा मिलती है। एफ0ए0ओ0 ने हिसाब लगाया कि इस समय दुनिया में भूखे पेट सोने वाले गरीबों की संख्या एक सौ करोड़ से ऊपर पहुंच गई है, और इस भूख का सबसे बड़ा कारण है गेहूं, चावल, दाल जैसे मुख्य आहारों की कीमतें बढ़ना। दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित और भूखे बच्चों, महिलाओं और पुरूषों की संख्या होने के कारण हमारा देश सबसे नीची निगाह से देखा जाता है। ऊपर से जलवायु परिवर्तन के खतरे बढ़ रहे हैं और खेती की उत्पादकता घट रही है। इसलिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना हमारे लिए अब बहुत बड़ी चुनौती बन गई है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने अपनी नेटवर्क परियोजनाओं के अध्ययनों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव देश की कृषि पर क्या होगा, इसकी समीक्षा की गई है। करीब 15 संस्थाओं के साझा प्रयासों से यह सामने आया कि अगर नई तकनीकों का लाभ नहीं लिया गया तो सिर्फ एक डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ने पर गेहूं उत्पादन में 60 लाख टन की कमी आने की आशंका है। अगर गेहूं के वर्तमान मूल्य पर इस आर्थिक हानि को आंके, तो डेढ़ अरब डालर यानी लगभग 7500 करोड़ रूपये की हानि हर साल होगी। इस तरह की हानि अन्य फसलों में अनुमानित है और इस तरह कुल मिलाकर भारत के किसानों की आमदनी में 20 अरब डालर से अधिक का नुकसान हो सकता है यानी लगभग 100 खरब रूपये यानी लगभग एक लाख करोड़ ही हानि होगी, जिसे झेलना आसान नहीं होगा।

आई0सी0ए0आर0 के वैज्ञानिक डॉ0 पी0के0 अग्रवाल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूं उत्पादन में 39 लाख टन कमी अगले इस वर्षों में देखी जा सकती है। इनका कहना है कि गेहूं की अगेती किस्में लगाना जरूरी है, परन्तु गांगेय क्षेत्र में धान की कटाई के बाद खेत गेहूं के लिए तुरन्त उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि जब तक नई तकनीकें विकसित नहीं होगीं और उन्हें व्यापक पैमाने पर किसान नहीं अपनाएगा तब तक ग्लोबल वार्मिंग से निपटना मुश्किल है।

कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों में सामने आया है कि खरीफ में मौसम में होने वाले धान पर जलवायु परिवर्तन का अधिक प्रभाव पड़ेगा। धान उत्पादन में 2020 तक 6.7 प्रतिशत, 2050 तक 15.1 प्रतिशत तक कमी आएगी और सदी के अंत तक धान उत्पादन करीब 28 फीसदी गिर जाएगा।

अगर औसत तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ तो आलू का 5 से 40 फीसदी और सोयाबीन का 11 से 36 फीसदी उत्पादन घट जाएगा। हम सोच सकते हैं कि पहले से ही लाखों लोग जिस देश में भूखे पेट सोते हों वहां ग्लोबल वार्मिंग क्या गुल खिला सकती है।

फसलों के अलावा समुद्री तापमान बढ़ने से मछलियां भी पलायन करेंगी। डॉ0 अग्रवाल के वैज्ञानिक शोध में सामने आया है कि भविष्य में समुद्री तापमान बढ़ने से दक्षिण - पश्चिम और दक्षिण - पूर्वी तटीय क्षेत्रों में मछलियों की तादाद काफी कम हो जाएगी, जिससे अधिकतर मुछुआरों को वैकल्पिक रोजगार तलाशना पड़ेगा।

जलवायु परिवर्तन के जो तत्काल प्रभाव सामने हैं, उनमें सबसे प्रमुख है दूध-उत्पादन। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्तमान में भारत मेें करीब 18 लाख टन दूध उत्पादन घट गया है। इसका प्रमुख कारण संकर नस्लों का जलवायु परिवर्तन से तालमेल बैठाने में विफल रहना है। वैज्ञानिकों का दावा है कि सन् 2050 तक 1 करोड़ 50 लाख टन दूध उत्पादन ग्लोबल वार्मिंग की भेंट चढ़ जाएगा और इससे संकर नस्लें और भैंसे अधिक प्रभावित होंगीं, देसी गाय नहीं। हालांकि बढ़ते कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर से अधिकतर वृक्ष और पौधों को फायदा भी मिलेगा, जैसे नारियल उत्पादन बढ़ेगा। लेकिन, काफी तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के अनुरूप पौधों और जीवों को अपने को ढालने का समय नहीं मिल रहा है, इसलिए अधिकतर खाद्य फसलों के उत्पादन में भी गिरावट आने की आशंका है।

क्या किया जा रहा है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ?

कोपेनहागेन मं निष्क्रियता हावी रही तो इसका मतलब यह नहीं कि हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें और वंचितों, कुपोषितों और भूखे गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दें। वैज्ञानिकों की कोशिश है कि बदलती जलवायु के अनुसार नए बीज और कृषि की नई तकनीक तैयार की जाएं और इस पर अनुसंधान भी जारी है। हमारा भी दायित्व है कि हम कार्बन उत्सर्जन कम करने में सहयोग करें वरना ब्लैक टर्न के बच्चे की जगह हमारी आने वाली पीढ़ीयां भी खाने का सिर्फ इंतजार करेंगी, जो उन्हें मिलेगा नहीं ....... क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग भूख नहीं जानती .........।

अभी तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु संबंधी जितने भी समझौते हुए है, फिर चाहे 1997 का क्योटो प्रोटोकोल हो या 2007 की बाली कार्य योजना, सभी जलवायु परिवर्तन से सांझी लड़ाई लड़ना मंजूर किया गया ताकि विकासशील देशों के आर्थिक विकास की गति समानरूप से तीव्र बनी रहे और धीमी न पड़े। यह प्रस्तावित किया गया कि औसत तापमान में दो डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोतरी न होने दी जाए। ला ’एक्विला और कोपेनहागेन दोनों जगह की वार्ताओं में औद्योगिक देशों में भले ही जिम्मदारीयां बटी हुई दिखीं हों, लेकिन इस समय ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की जो दर चल रही है, वर्तमान संदर्भ में उसे दो डिग्री से अधिक न बढ़ने देना भी आसान नहीं लग रहा है। इसलिए हमें दो डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने के कारण पहले कौन कौन देश प्रभावित होंगे, यह ध्यान में रखकर जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटना होगा।

वैज्ञानिकों का मत है कि तापमान में दो डिग्री की वृद्धि प्रशांत महासागर में तबालू नामक छोटे छोटे द्वीपों का समूह, मालद्वीप और अंडमान और निकोबार तथा पश्चिम बंगाल में सुंदरवन एवं केरल मेें कुटटूनाड का इलाका आदि द्वीपों और तटवर्ती क्षेत्रों को डुबों देगी। उत्तर भारत में गंगा के मैदान में बाढ़ की समस्या बढ़ेगी। दूसरी ओर सूखे के कारण खाद्यान्न और पानी की कमी और भी गंभीर हो जाएगी। जहां उत्तरी अक्षांश के देशों की फसलों का वृद्धि काल बढ़ने और और

तद्नुसार उपज बढ़ने के फायदे मिलेंगे, वहीं दक्षिण एशिया, उप-सहारा के अफ्रीकी इलाके और छोटे द्वीपों पर गरमाती धरती का सबसे बुरा असर पड़ेगा।

क्या कदम उठाए जा सकते हैं ?

जहां तक असर कम करने की बात है है तो विख्यात कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर एम0एस0 स्वामीनाथन का कहना है कि हमें अधिक से अधिक कार्बन मिट्टी में जमा करना होगा, ताकि मिट्टी में ही कार्बन के बैंक बन जाएं। अगर हम फसलों के पौधों की जड़ों के पास एक टन कार्बन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष भी जमा कर पाए तो हमारे खाद्य उत्पादन में आशातीत वृद्धि होने लगेगी, क्योंकि मिट्टी की सेहत बिगाड़ने में सबसे बड़ा हाथ है जैवांश का यानी कार्बन की कमी होना। असल में हमें सैन्य स्तर पर यह अभियान चलाना होगा कि कार्बन जमा करने के साथ मिट्टी की उर्वकता बढ़ाने वाले उर्वरक वृक्षों को कम से कम एक एक अरब की संख्या में रोप दिया जाए। दूसरी ओर बायोगैस संयंत्रों का विस्तार करके हमें पशुपालन से होने वाले मीथेन उत्सर्जन को भी रोकना होगा। हर खेत के साथ बायोगैस संयंत्र चालू किया जा सके और तालाब बनाया जा सके, जो कतई मुश्किल नहीं है, तो ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी घटाया जा सकेगा और साथ ही ऊर्जा और जल सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सकेगी। इसी तरह नीम लेपित यूरिया इस्तेमाल करके अमोनिया को हवा मेें उड़ने से रोका जा सकता है जिससे कि वायुमण्डल में नाइट्रस ऑक्साइड का विमोचन बेहद घट जाएगा।

प्रो0 स्वामीनाथन ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के सुझाव बताते हुए कहते हैं कि 2010 को संयुक्त राष्ट्र ने जैव विविधता वर्ष घोषित किया है। इस वर्ष हम अपनी फसलों को दो भागों में बांट सकते हैं। एक वे जो जलवायु परिवर्तन की मार सह सकें और दूसरी वे जो जलवायु के दुष्प्रभाव के सामने घुटने टेक दें। उदाहरण के लिए गेहूं दूसरी श्रेणी में आता है, जबकि धान भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, यहां तक कि हाथी डुबान पानी में भी लहराने वाले होते हैं। आलू जैसी फसलों में भी समस्या पैदा होगी, उत्तर के मैदानों में तापमान बढ़ गया तो आलू का रोगमुक्त बीज बनाना कठिन हो जाएगा। तब हमंे आलू को टमाटर की तरह उसके सच्चे बीजों से उगाना शुरू करना होगा, और यह तकनीक हमारे पास मौजूद है। फसलों के रोगों और कीटव्याधियों में भी फर्क पड़ेगा। अभी गेहूं का तना रतुआ नामक फफूंदी जन्य रोग दक्षिण भारत के राज्यों में ही नजर आता था, लेकिन गर्मी बढ़ने पर उत्तर भारत के गेहूं के कटोरों में भी फन उठाने लगेगा। इससे निपटने के लिए हमें जंगली किस्मों और अन्य स्रोतों से ऐसे जीन यानी वंशाणु खोजने होंगे, जिन्हें फसलों में डालकर उन्हें बढ़ते तापमान के प्रति सहनशील बना सकें।

पहले से खतरा भांपकर तुरंत कदम उठाने की जोखिम प्रबंधन प्रणाली बेहद जरूरी होगी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् देश के 127 कृषि जलवायु उपमंडलों की पहचान कर चुकी है और इन सभी उपमंडलों में एक जलवायु जोखिम प्रबंधन अनुसंधान और प्रसार केंद्र’ स्थापित किया जाए। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की सहायता से इन सभी 127 स्थानों पर ’विलेज रिसोर्स सेंटर (वी0आर0सी0) यानी ग्रामीण संसाधन केंद्र बनाए जाएं। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के सहयोग से प्रत्येक ’अनुसंधान और प्रसार केंद्र’ में एक कृषि मौसम केंद्र बना दिया जाए जो सबके लिए मौसम की जानकारी प्रसारित करे। गांवो में अनाज बैंक और बीज बैंक स्थापित किए जाएं। तटवर्ती क्षेत्रों को समुद्र का स्तर बढ़ने और बार-बार आने वाले तूफानों और सूनामियों से बचाने के लिए समुद्र और तट के बीच में मैंग्रोव वर्ग के और अन्य वृक्षों की दीवार खड़ी कर दी जाए। ये वृक्ष बायोशील्ड का काम करेंगे, जो कि पहले जहां जहां थे, वहां कर चुके हैं। इसके साथ समुद्र के खारे पानी में और समुद्र स्तर से नीचे के खेतों में फसलें उगाने की तकनीकें विकसित की जाए।

कोपेहागेन में निष्क्रियता हावी रही तो इसका मतलब यह नहीं कि हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें और वंचितों, कुपोषितों और भूखे गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दें। वैज्ञानिकों की कोशिश है कि बदलती जलवायु के अनुसार नए बीज और कृषि की नई तकनीक तैयार की जाएं और इस पर अनुसंधान भी जारी है। हमारा भी दायित्व है कि हम कार्बन उत्सर्जन कम करने में सहयोग करें वरना ब्लैंक टर्न के बच्चे की जगह हमारी आने वाली पीढ़ियां भी खाने का सिर्फ इंतजार करेंगी, जो उन्हें मिलेगा नहीं........ क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग भूख नहीं जानती .......... और दान कहीं से मिलेगा नही।

विश्व भर में खाने की बर्बादी रोक दी जाए तो प्रकृति पर बिना कोई और बोझ डाले 50 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है। यह बात संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ0ए0ओ0) ने कही है। एफ0ए0ओ0 के महानिदेशक जौस ग्रैजियाना द सिल्वा ने एक बयान में कहा, वैश्विक स्तर पर कुल खाद्य उत्पादन का करीब एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इस बर्बादी को रोकना भूख की समस्या खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा। एफ0ए0ओ0 की इससे पहले जारी रिपोर्ट के मुताबिक औद्योगिक देशों में करीब 680 अरब डालर के खाद्य उत्पादों का नुकसान और बर्बादी होती है और विकासशील देशों में यह आंकड़ा 310 अरब अरब डालर है।

विश्व खाद्य कार्यक्रम और एम0एस0 स्वामीनाथन फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रूप से जारी एक रिपोर्ट में यह सचाई सामने आई है कि झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में आहार असुरक्षा की स्थिति की स्थिति अत्यन्त गंभीर है और मध्य प्रदेश, बिहार तथा गुजरात जैसे राज्य इससे तनिक ही बेहतर हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, देश के करीब 32 करोड़ लोगों को रोजाना भरपेट भोजन नसीब नहीं होता। निसंदेह देश की सबसे बड़ी संपदा इसके 123 करोड़ लोग हैं, और हम इन सबका पेट भरने के लिहाज से पर्याप्त अनाज भी पैदा करते हैं, पर प्रचुरता के बीच भी भूख का विरोधाभास यहां बना हुआ है। आखिर भारत अपने लोगों का पेट क्यों नहीं भर पा रहा है ?

सांई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाए।।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधू भी भूखा न जाऐ।

एक तरफ देश कृषि निर्यात को बढ़ाने में लगा है, तो वही करीब 32 करोड़ की आबादी भूखे पेट सोने को मजबूर है। स्थिति इतनी विकराल है कि देश में भूखे और कुपोषित लोगों की संख्या अमरीका की कुल आबादी के लगभग बराबर है। कुपोषण की ही अगर बात करें, तो अनेक अध्ययन इशारा करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के तीन संगठनों (खाद्य एवं कृषि संगठन, इंटरनेशनल फंड फोर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम) की वार्षिक खाद्य असुरक्षा रिपोर्ट में 21.7 करोड़ कुपोषित लोगों की संख्या के साथ भारत शीर्ष पर है।

सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर।।

जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फ़कीर।

इंडियन काउंसिंल ऑफ मेडिकल रिसर्च के मानकों के मुताबिक, प्रति व्यक्ति प्रति दिन ग्रामीण इलाके में 2400 कैलोरी और शहरी इलाके में 2100 कैलोरी भोजन के बगैर स्वस्थ जीवन संभव नहीं है। प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च के मामले में नेशनल सैंपल सर्वे के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 2009-10 में गांवों में भोजन के मद में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 600 रूपये और शहरों में 881 रूपये था। इसका अर्थ यह हुआ कि 2009-10 में गांवों में भोजन पर लोगों ने आमदनी का 57 फीसदी हिस्सा खर्च किया और शहरों में तकरीबन 44 फीसदी। ’खाद्यान्न की मौजूदा आसमान छूती कीमतों को देखते हुए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आमदनी का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने के पोषण से भरपूर भोजन नहीं मिल पाता।

भोजन और पोषण का सवाल सीधे-सीधे जीविका की स्थितियों से जुड़ा होता है। आमदनी नियमित और पर्याप्त होने के बाद ही किसी परिवार को पोषक आहार समुंचित मात्रा में हासिल हो सकता है। यह सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वह हर नागरिक को सही तरीके से पोषण दे, परन्तु दुर्भाग्य है कि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घट रही है। पिछली सदी में 90 के दशक में जब आर्थिक सुधार शुरू हुए थे, तब प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 480 गा्रम थी, पर 2010 में घटकर यह 441 ग्राम रह गई। यानी, हालात बिगड़ रहे हैं, पर तर्क यह दिया जा रहा है कि चूंकि लोगों की आय बढ़ रही है, तो वे अनाज के बनिस्वत पोषक सेवन अधिक कर रहे हैं। क्या यह सच है ? राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अनाज के साथ ही फल, दूध अंडे जैसे अन्य पोषक आहारों के उपभोग में भी लगातार कमी आ रही है।

बहरहाल भूख और कुपोषण के कई आयाम भी हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। अभी देश की जनसंख्या 121 करोड़ है, जो ब्राजील, अमेरिका, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश की कुल जनसंख्या से भी अधिक है। पृथ्वी के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत हिस्सा ही भारत के पास है, परंतु विश्व की 17.5 प्रतिशत जनसंख्या यहां निवास करती है। जब हम वर्तमान जनसंख्या को ही पर्याप्त सुविधाएं और खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करा पा रहे है, तो बढ़ी हुई आबादी को किस प्रकार उपलब्ध कराएंगे, यह एक गंभीर प्रश्न है ?

याद रखें अन्न का एक-एक कतरा 1 ग्राम चावल के 50 दाने, गेहँू के 20, चनें के 10 दाने, दाल के 20 दाने, मक्का ज्वार के 10 व 50 दाने एक सूक्ष्म जीव जैसे चींटी, चिड़ियां आदि का समय का भोजन है, अर्थात अन्न की बर्बादी हमारी बर्बादी का कारण बनेगी और अन्त में समस्त संसार वासियांे को सन्देश देना चाहता हूँ कि सिर्फ जी0डी0पी0 विकास दर के पीछे न भागें - व यर्थात के धरातल पर चिंतन करें अन्यथा हमारी आगे आने वाली पीढ़ियाँ खाने का सिर्फ इंतजार ही करेगीं क्यांेकि ग्लोबल वार्मिंग भूख नहीं जानती।

निदा फ़ाजली के शब्दों में आने वाली पीढ़ी हमसे सवाल कर सकती है ?

बच्चा बोला देखकर, मस्जिद आलीशान,

अल्लाह तेरे एक को, इतना बड़ा मकान।

अन्दर मूरत पर चढ़े, घी, पूरी, मिष्ठान,

मन्दिर के बाहर खड़ा, ईश्वर मांगे दान।।